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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--9

देवदास ःशरतचन्द्र चट्टोपाध्याय बांग्ला उपन्यास
9


चार-पांच दिनो मे ही वह सूख गया। इसी भांति आठ-दस दिन बीत गये। फिर एक दिन रात के समय हाथीपोता गांव के जमीदार भुवनमोहन चौधरी वर बनकर विवाह करने के लिए आये। उत्सव बहुत तड़क-भड़क के साथ नही मनाया गया। भुवन बाबू नासमझ आदमी नही थी- इस प्रोढ़ावस्था मे दूसरा विवाह करने के समय छोकरा बनकर आना ठीक नही।

वर की उम्र चालीस वर्ष नही, कुछ ऊपर ही है, गौरवर्ण और मोटा-सा थुलथुल शरीर है। कच्चीपक्की मूंछे मिलाकर खिच्ड़ी हो रही थी और सिर का अगला भाग सफाचट हो रहा था। वर को देखकर कोई हंसा और कोई चुप ही रहा। भुवन बाबू शांत गंभीर मुख से किसी अपराधी की भांति विवाह मंडप मे आकर खड़े हुए। कोहबर मे स्त्रियो ने उनके साथ हंसी-मंजाक नही किया। कारण, ऐसे विज्ञ, गंभीर मनुष्य के साथ हंसी करने का किसी को साहस नही हुआ। शुभ-दृष्टि के समय पार्वती किचकिचाकिचकिचाकर देखती रही। होठ कोण मे थोड़ी हंसी की रेखा भी थी। भुवन बाबू ने छोटे बच्चो की तरह दृष्टि नीची कर ली। गांव की स्त्रियां खिलखिलाकर हंस रही थी। चक्रवर्ती महाशय इधर-उधर दौड़-धूप कर रहे थे। प्रवीण जमाता को पाकर वे कुछ व्यस्त से हो उठे। जमीदार नारायण मुखोपाध्याय आज कन्या-पक्ष के सब कर्ता-धर्ता थे। वे पक्के-प्रबंधकर्ता थे। किसी भी तरह की त्रुटि नही होने पायी। शुभ कर्म भली-भांति समाप्त हो गया।

दूसरे दिन प्रातःकाल चौधरी महाशय ने एक बॉक्स गहना बाहर निकालकर रख दिया। ये सब गहने पार्वती के शरीर मे जगमगा उठे। माता ने उसे देख आंचल से आंख का आंसू पेछा। पास ही जमीदारिन खड़ी थी, उन्होने सस्नेह तिरस्कार करके कहा- ‘आज आंख का आंसू बहाकर अशुभ न करो!’

सन्ध्या के कुछ पहले मनोरमा ने पार्वती को एक निर्जन घर मे ले जाकर आर्शीवाद दिया। कहा- ‘जो हुआ, अच्छा ही हुआ, अब देखोगी कि तुम पहले से कितने सुखी हो।’

पार्वती ने थोड़ा हसंकर कहा- ‘हां होऊंगी। जम के साथ-साथ कल थोड़ा परिचय हुआ है न!’

‘यह कैसी बात?’

‘समय पर सब देख लोगी।’ मनोरमा ने बात को दूसरी ओर घुमाकर कहा- ‘यदि तुम्हारी इच्छा हो तो एक बार देवदास को इस सोने की प्रतिमा को लाकर दिखाऊं?’

पार्वती चमक उठी- ‘ला सकती हो बहिन! क्या एक बार बुलाकर नही ला सकती?’

मनोरमा का कंठ स्वर सिहर उठा- ‘क्यो पत्तो?’

पार्वती ने हाथ का कड़ा घुमाते-घुमाते अन्यमनस्क भाव से कहा- ‘एक बार उसके पांव की धूल को सिर पर चढ़ाऊंगी, आज जाऊंगी न!’

मनोरमा ने पार्वती को छाती से लगा लिया, फिर दोनो बहुत देर तक रोती रही। सन्ध्या हो गयी, अंधकार बढ़ गया। दादी ने द्वार ठेलकर बाहर से ही कहा- ‘ओ पत्तो, ओ मनो, तुम लोग जरा बाहर आना बहिन!’

उसी रात पार्वती स्वामी के घर चली गयी।

और देवदास? उन्होने उस दिन कलकत्ता के ईडन गार्डन की एक बेच पर बैठे-बैठे सारी रात बिता दी। उन्हे अत्यंत क्लेश आथवा मार्मिक वेदना हुई हो, यह बात नही है। उनके हृदय मे न जाने कैसा एक शिथिल-उदासीन भाव धीरे-ध्ीरे जमा हो रहा था। निद्रित अवस्था मे हठात्‌ शरीर के किसी एक अंग मे पक्षपात हो जाने से नीद टूटने पर जैसे उसके ऊपर ढूंढने पर भी अपना कोई अधिकार नही पाने से विस्मित और स्तम्भित मन को ठीक नही कर पाते, क्योकि उसका आजन्म का साथी, सर्वदा का

विश्वासी अंग उसके आह्वान का कोई प्रत्युत्तर नही देता; धीरे-धीरे समझ आती है और धीरे-धीरे ज्ञान उत्पन्न होता है कि अब उस पर अपना कोई अधिकार नही है। देवदास भी ठीक उसी भांति धीरे-धीरे समझ रहे थे कि समय और संसार मे अकस्मात पक्षाघात होने से वे उनसे सर्वदा के लिए विलग हो गये। अब उनके ऊपर मिथ्या, क्रोध और अभिमान करके कुछ नही किया जा सकता। अधिक अधिकार की बात सोचने से भी भारी भूल होगी। उसके समय सूर्योदय हो रहा था। देवदास ने खड़े होकर सोचा, कहा चलूं? हठात स्मरण हुआ कि कलकत्ता के उसी मैस मे, वहां पर चुन्नीलाल है। देवदास उसी ओर चलने लगे। रास्ते मे दो बार धक्का खाया, ठोकर खाने से अंगुली लहू-लुहान हो गयी। धक्का लगने से एक आदमी के शरीर पर गिर रहे थे, उसने मतवाला कहकर ढकेल दिया। इसी भांति भटकते-भटकते सन्ध्या के समय मैस के दरवाजे पर आकर खड़े हुए। उस समय चुन्नीलाल सज-धजकर बाहर जा रहे थे- ‘यह क्या, देवदास?’

देवदास चुपचाप देखते रहे। ‘कब आये? मुंह सूखा हुआ हुआ है। नहाना खाना क्या अब तक कुछ नही हुआ?’ देवदास रास्ते मे ही बैठ गये। चुन्नीलाल हाथ पकड़कर भीतर ले गये। अपनी शैया पर बैठकर शांत करके पूछा- ‘क्या मामला है देवदास?’

‘कल मकान से आया हूं?’

‘कल सारे दिन कहां थे? रात भी कहां थे?’

‘ईडन गार्डन मे।’

‘पागल तो नही हो! क्या हुआ है।’

‘सुनकर क्या करोगो?’

‘नही कहो, अभी खाओ-पियो। तुम्हारा सामान कहां है?’

‘कुछ भी साथ नही लाया हूं।’

‘अच्छा रहने दो, अभी चलकर खाओ-पियो।’

तब चुन्नीलाल ने जोर देकर खिलाया-पिलाया; शैया पर सोने का आदेश देकर दरवाजा बंद करते-करते कहा - ‘अभी थोड़ी सोने की चेष्टा करो, मै रात को आकर तुम्हे उठाऊंगा।’ यह कहकर वे उस समय तक के लिए चले गये। रात को दस बजे उन्होने लौटकर देखा कि देवदास उनके बिछौने पर गाढ़ी नीद मे सो रहे है। उन्हे जगाया नही। एक कम्बल ओढ़कर नीचे चटाई पर सो रहे। रात-भर देवदास की नीद नही टूटी और प्रातः काल मे भी सोते ही रहे। दस बजे उठकर बैठे। पूछा- ‘चुन्नी

बाबू, कब आये?’

‘अभी आया हूं।’

‘तुम्हे किसी तरह का कष्ट तो नही हुआ?’

‘कुछ भी नही हुआ।’

देवदास ने कुछ देर तक उनके मुंह की ओर देाखकर कहा- ‘चुन्नीलाल बाबू, मेरे पास कुछ नही है, क्या तुम मुझे आश्रय दोगे?’

चुन्नीलाल कुछ हंसे। वे जानते थे कि देवदास के पिता बड़े धनवान व्यक्ति है। इसी से हंसकर कहा‘मै आश्रय दूंगा? अच्छी बात है, तुम्हारी जितने दिन इच्छा हो, यहां पर रहो, कोई चिन्ता नही।’

‘चुन्नीबाबू, तुम्हारी आमदनी कितनी है?’

‘भाई, मेरी आमदनी मामूली है। मकान पर कुछ जमीदारी है। उसे भाई साहब को सौपकर मै यहां रहता हूं। वे हर महीने सत्तर रुपये के हिसाब से भेज देते है। इतने मे तुम्हारा और मेरा खर्च अच्छी तरह से चल जायेगा।’

‘तुम मकान क्यो नही जाते?’

चुन्नीलाल ने उधर मुंह फिराकर कहा- ‘बहुत सी बाते है।’

देवदास ने और कुछ नही पूछा। धीरे-धीरे भोजन आदि की बुलाहट आई। इसके बाद दोनो भोजनादि समाप्त करके फिर धर मे आकर बैठे। चुन्नीलाल ने पूछा- ‘देवदास क्या बाप के साथ कुछ झगड़ा हो गया है।’

‘नही।’

‘और किसी के साथ?’

देवदास ने उसी भांति जवाब दिया- ‘नही।’

इसके बाद चुन्नीलाल को सहसा दूसरी बात का स्मरण आया। कहा- ‘ओहो, तुम्हारा तो अभी ब्याह नही हुआ है!’

इसी समय देवदास दूसरी ओर मुंह फेरकर सो रहे। थोड़ी ही देर मे चुन्नीलाल ने देखा कि देवदास सो गये। इसी भांति सोते-सोते और भी दो दिन बीत गये। तीसरे दिन प्रातः काल देवदास स्वस्थ होकर बैठे थे। मुख से ऐसा जान पड़ता था मानो वह घनी छाया बहुत कुछ हट गई हो। चुन्नीलाल ने पूछा- ‘आज तबीयत कैसी है?’

‘पहले से अच्छी जान पड़ती है। अच्छा चुन्नी बाबू, रात मे तुम कहां जाते हो?’

आज चुन्नीलाल ने लज्जित होकर कहा- ‘हां, मै जाता हूं, पर उसकी कौन बात है?’ अच्छा, आज कॉलेज जाओगे न?’

‘नही, लिखना-पढ़ना छोड़ दिया।’

‘छिः! ऐसा भी हो सकता है, दो महीने बाद तुम्हारी परीक्षा होगी! पढ़ना भी तुम्हारा ाख्राब नही है।

इस साल परीक्षा दो न!’

‘नही, पढ़ना छोड़ दिया।’

चुन्नीलाल चुप ही रहे। देवदास ने फिर पूछा- ‘कहां

चुन्नीलाल ने देवदास के मुंह की ओर देखकर कहा- ‘उसे जानकर क्या करोगे, मै कुछ अच्छी जगह नही जाता।’

देवदास ने अपने मन-ही-मन मे कहा- ‘अच्छी हो या बुरी इससे क्या मतलब- ‘चुन्नी बाबू, मुझे साथ ले चलोगे या नही।’

‘ले चल सकता हूं, किन्तु मत चलो।’

‘नही, मै चलूंगा। अगर अच्छा नही लगेगा, तो मै फिर नही जाऊंगा। पर तुम जिस सुख की आशा से नित्य उन्मुख रहते हो...। जो हो चुन्नीबाबू, मै निश्चित चलूंगा।’

चुन्नीलाल ने मुंह फेर, कुछ हंस के मन-ही-मन कहा- ‘मेरी दशा! प्रकट मे कहा- ‘अच्छा, चलना।’

सन्ध्या के कुछ पहले ही धर्मदास चीज-वस्तु आ पहुंचा। देवदास को देखकर रोते-रोते कहा‘देवदास आज तीन-चार दिन हुए, मां कितना रो रही है।’

‘क्यो रोती है?’

‘बिना किसी से कहे-सुने एकाएक चले आये।’ एक पत्र बाहर निकालकर हाथ मे देकर कहा- ‘मां की चिट्ठी है।’

चुन्नीलाल भीतर-ही-भीतर खबर जानने के लिए उत्सुक भाव से देख रहे थे। देवदास ने पत्र पढ़कर रख दिया। मां ने घर पर आने के लिए बड़े अनुरोध के साथ बुलाया है। घर मे ही वे केवल देवदास के मानसिक कष्ट का कुछ-कुछ अनुमान कर सकी थी। धर्मदास के हाथ छिपाकर बहुत सा रूपया भी भेज दिया था। धर्मदास ने वह सब देवदास के हाथ मे देकर कहा- ‘देवदास, घर चलो।’

‘मै नही जाऊंगा। तुम लौट जाओ!’

रात मे दोनो मित्र सज-धज के बाहर निकले। देवदास की इन सबकी ओर प्रवृत्ति नही थी; किंतु चुन्नीलाल साधारण पोषाक पहनकर बाहर चलने को राजी नही हुए। रात के नौ के समय एक किराये की गाड़ी चितपुर के एक दो तल्ले मकान के सामने आकर खड़ी हुई। चुन्नीलाल देवदास का हाथ पकड़े हुए भीतर चले गये। गृहस्वामी का नाम चन्द्रस्वामी है- उन्होने आकर अभ्यर्थना की। इस समय देवदास का सारा शरीर जल उठा। वे इधर कई दिनो से अपनी अज्ञानता मे नारी-देह की छाया के ऊपर भी विद्वेष करने लगे थे, यह सब वह स्वयं नही जानते थे। चन्द्रमुखी को देखते ही हृदय की संचित घृणा दावानल की भांति प्रज्ज्वलित हो उठी। चुन्नीलाल के मुख की ओर देखकर भौ चढ़ाकर कहा- ‘चुन्नीलाल, यह किस मनहूस जगह मे ले आये?’ उनके तीव्र कंठ और आंख की दृष्टि देखकर चन्द्रमुखी और चुन्नीलाल दोनो ही हत्‌बुद्धि से हो गये। दूसरे ही क्षण चुन्नीलाल ने अपने को संभालकर देवदास का एक हाथ पकड़कर कोमल कंठ से कहा- ‘चलिये, भीतर चलकर बैठिये।’

देवदास कुछ नही बोले, कमरे मे जाकर बिछौने पर गर्दन झुका के विपन्न-मुख बैठ गये। पास ही चन्द्रमुखी भी चपचाप बैठ गई। दासी तमाखू भरकर चांदी से मढ़ा हुआ नारियल लाई। देवदास ने स्पर्श भी नही किया। चुन्नीलाल गंभीर-मुख बैठे रहे। दासी क्या करे, यह निश्चय न कर कर सकी। अंत मे चन्द्रमुखी के हाथ मे नारियल देकर चली गई। दो-एक फूंक खीचने के समय देवदास ने उसके मुख की ओर देखा और एकाएक अत्यंत घृणा से कह उठे-‘कितने असभ्य और श्रीहीना है?’

इसके पहले चन्द्रमुखी को बातचीत मे कोई हरा नही सका था। उसको अप्रतिभ करना जरा टेढ़ी खीर थी। देवदास की इस आन्तरिक घृणा की सरल और कठिन उक्ति उसके हृदय मे बिंध गई। किंतु कुछ देर बाद ही उसने अपने को संयत कर लिया। परंतु चन्द्रमुखी के मुख से धुंआ नही निकला। तब चुन्नीलाल के हाथ मे हुक्का देकर उसने फिर एक बार देवदास के मुख की ओर देखा और फिर निःशब्द बैठी रही।

तीनो ही निर्विकार हो रहे थे। केवल बीच-बीच मे गड़-गड़ करके हुक्के का शब्द होता था, वह भी मानो डरते-डरते। मित्र मंडली मे तर्क उठने पर एकाएक निरर्थक कलह हो जाने से जैसे प्रत्येक अपने मनही-मन फूले रहते और क्षुब्ध अन्तःकरण से कहते है कि- ‘यही तो!’ ,उसी भांति तीनो आदमी मनही-मन कह रहे थे- ‘यही तो, यह कैसा हुआ?’

जो हो, तीनो मे से किसी को भी आनन्द नही मिला। चुन्नीलाल तो हुक्का रखकर नीचे उतर आये, शायद उन्हे कोई दूसरा काम नही मिला। इसलिए कमरे मे अब केवल दो आदमी रह गये। देवदास ने मुख उठाकर पूछा- ‘तुम अपनी दर्शनी लेती हो?’

चन्द्रमुखी ने सहसा कोई उत्तर नही दिया। इस समय उसकी उम्र छब्बीस वर्ष की थी। इन नौ-दस वर्ष के बीच मे उसका कितने ही विभिन्न प्रकृति के मनुष्यो के साथ घनिष्ठ परिचय हो चुका था, किन्तु इस प्रकार के अद्‌भुत मनुष्य से एक दिन भी भेट नही हुई थी। कुछ इधर-उधर करके उसने कहा‘आपके पांव की धूल जब पड़ी है...!’

देवदस ने बात समाप्त नही होने दी, बीच मे ही कह उठे- ‘पांव की धूल की बात नही रूपया लेती हो?’

‘उसके न लेने से हम लोगो का काम कैसे चलेगा?’

‘बस- यही सुनना चाहता हूं।’ यह कहकर उन्होने पॉकेट से एक नोट निकाला और चन्द्रमुखी के हाथ मे देकर चलने की तैयारी की। एक बार देखा भी नही कि कितना रूपया दिया?

चन्द्रमुखी ने विनीत भाव से कहा- ‘इतनी जल्दी जायेगे?’

देवदास ने कुछ नही कहा, बरामदे मे आकर चुपचाप खड़े हो गये।

चन्द्रमुखी की एक बार इच्छा हुई कि रुपया लौटा दे, किन्तु किसी तीव्र संकोच के कारण लौटा न सकी। सम्भवतः उसे कुछ डर भी मालूम हुआ था। इसे छोड़ उसे अनेको लांछना, भर्त्सना और अपमान सहने का अभ्यास है, इसीलिए निर्वाक्‌, निस्पन्द चौखट के ऊपर खड़ी रही। देवदास सीढ़ी से नीचे उतर गये।

सीढ़ी पर ही चुन्नीलाल से भेट हुई। उन्होने आश्चर्य से पूछा- ‘कहां जाते हो?’

‘बासे को जाता हूं।’

‘यह क्यो?’

देवदास और दो-तीन सीढ़ी उतर गये।

चुन्नीलाल ने कहा- ‘मै भी चलता हूं।’

देवदास के पास आकर उनका हाथ पकड़कर कहा- ‘चलो, थोड़ा यही पर खड़े रहो, मै ऊपर से होकर अभी आता हूं।’

‘नही, मै जाता हूं, तुम फिर आना।’ - यह कहकर देवदास चले गये।

चुन्नीलाल ने ऊपर आकर देखा, चन्द्रमुखी तब भी उसी भांति चौखट पर खड़ी है।

उसे देखकर पूछा- ‘वह चले गये?’

‘हां।’

चन्द्रमुखी ने हाथ का नोट दिखाकर कहा- ‘यह देखो, अच्छा होगा इसे ले जाओ, अपने मित्र को लौटा दो।’

चुन्नीलाल ने कहा- ‘वे अपनी इच्छा से दे गये है, फिर मै क्यो लौटा ले जाऊं?’

इतनी देर बाद चन्द्रमुखी थोड़ा हंसी, किंतु हंसी मे आनन्द का लेश नही था। उसने कहा- ‘इच्छा से नही; मै रूपया लेती हूं इसी से क्रोध करके दे गये है। हां चुन्नी बाबू, वह क्या पागल है?’

‘कुछ भी नही। आज कई दिन से शायद उनका मन ठीक नही है।’

‘क्यो नही मन ठीक है, कुछ जानते हो?’

‘मै नही जानता, शायद मकान पर कुछ हुआ है।’

‘तब यहां पर क्यो लाये?’

‘मै नही लाता था, वे खुद ही जोर देकर आये थे।’

चन्द्रमुखी इस बार यथार्थ मे विस्मित हुई। कहा- ‘खुद जोर देकर आये! सब जानकर!’

चुन्नीलाल ने कुछ सोचकर कहा- ‘और नही तो क्या? वे सभी जानते है। मै भुलवाकर नही लाया।’

चन्द्रमुखी कुछ देर तक चुप रही, फिर न जाने क्या सोचकर कहा-‘चुन्नी, मेरा एक उपकार करोगे?’

‘क्या?’

‘तुम्हारे मित्र कहां रहते है?’

‘मेरे ही साथ।’

‘एक दिन उन्हे और ला सकते हो?’

‘यह मै नही कर सकता। इसके पहले वे किसी ऐसी जगह पर नही गये थे और भविष्य मे भी अब किसी ऐसी जगह पर जाने की उम्मीद नही है। किन्तु क्यो, यह तो बताओ?’

चन्द्रमुखी ने एक मलिन हंसी हंसकर कहा- ‘चुन्नी, चाहे जैसे हो, एक बार उन्हे और लिवा लाओ।’

चुन्नी ने मुस्करा तथा आंखे मारकर कहा- ‘धमकी पाने से कही प्रेम उत्पन्न हुआ है क्या?’

चन्द्रमुखी भी मुस्करायी, कहा- ‘नही देखा, नोट दे गये है, इतना भी नही समझते!’

चुन्नी चन्द्रमुखी को कुछ पहचानते थे, सिर हिलाकर कहा- ‘नही-नही नोट वाली दूसरी होती है, तुम वैसी नही हो। सच बात कहो, क्या है?’

चन्द्रमुखी ने कहा- ‘सच बात तो यह है कि उनकी ओर कुछ मन का खिंचाव हो रहा है।’

चुन्नी ने विश्वास नही किया। हंसकर कहा- ‘इतनी देर मे?’

इस बार चन्द्रमुखी भी हंस पड़ी। कहा- ‘यह होने दो। चित्त स्वस्थ होने पर एक बार और लिवा लाना, फिर एक बार देखूंगी। लिवा लाओगे न?’

‘कह नही सकता।’

‘मेरे सिर की सौगंध है।’

‘अच्छा, कोशिश करूंगा।’

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